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चुनाव प्रचार के लिए भी गाइडलाइन निर्धारित होना आवश्यक

(सविता ठाकुर)

भारत चुनावो का देश है. वर्ष भर कही न कही कोई न कोई चुनाव या उपचुनाव होता ही रहता है. मीडिया के प्रचार प्रसार के चलते राज्यों के चुनाव हो या केंद्र के चाहे स्थानीय निकायों के , सभी राष्ट्रीय स्तर पर समाचारों का हिस्सा होते हैं. पिछले कुछ वर्षो में यह भी देखा गया है की चुनाव किसी भी स्तर का हो राजनैतिक दलों राष्ट्रीय स्तर के नेता प्रचार प्रसार के लिए पहुंचते हैं. होना तो यह चाहिए की जिस क्षेत्र का जिस स्तर का चुनाव हो रहा है उस स्तर के मुद्दे और विषयों पर चर्चा हो लेकिन चूंकि शीर्ष नेतृत्व इस प्रचार प्रसार में शामिल हो जाता है तो मुद्दों का दायरा भी क्षेत्र की सीमा के पार पहुँच जाता है. पिछले कुछ वर्षो में चुनाव प्रचार का स्तर इतना गिर गया कि लोग भ्रमित हो रहे हैं कि यह विचारधारा और सिध्दान्तो की प्रतिस्पर्धा है या केवल व्यक्तिगत प्रतिद्वंदिता और आरोप प्रत्यारोप का खेल तमाशा है. जनता इन भाषणों के बीच अपने आप को और अपने मुद्दों को तलाशने की बेजा कोशिश करती है लेकिन दूर दूर तक किसी भी राजनातिक दल के प्रचार प्रसार अभियान में सिर्फ़ वही गायब रहता है.
यह केवल चुनावी सभाओ और रैलियों तक सीमित नहीं है बल्कि हर शाम नेशनल चेनलो पर चलने वाली अंतहीन बहस में भी हो रहा है. किसी नेता के किसी बयान को पकडकर उसी को बहस का और फिर चुनाव का मुद्दा बना दिया जाता है.
पिछले कुछ चुनावो में तो भाषणों और भाषाओ के स्तर इतने गिरे कि जनता भी शर्मिन्दगी महसूस करने लगी. चुनावी प्रचार के दौरान सभी राजनैतिक दलों का प्रयास या लक्ष्य केवल इतना दिखाई देता है कि वे जनता के सामने अपने प्रतिद्वंदी दल और उनके प्रतिनिधियों की छबी खराब कर सके. ताकि यह दिखाया जा सके की मेरी कमीज़ उसकी कमीज़ से कम मैली है इसलिए मुझको वोट दीजिये. और इस चक्कर में अपने विपक्षी नेताओ की छीछालेदर करने में इतने मशगूल हो जाते हैं कि ये भी ध्यान नहीं रहता की चुनाव केवल कला सफ़ेद का खेल नही बल्कि लोकतंत्र की एक गौरवशाली परम्परा है जो जनता को ये अधिकार देती है कि वह यह तय कर सके कि देश/प्रदेश के विकास की दृष्टि से, लोगो के जीवन स्तर को बेहतर बनाने की दृष्टि से कौन अधिक काबिल है या कौन अधिक संजीदा है. जो सत्ता में थे उनसे यह उम्मीद की जाती है वे ये बता सकें कि सत्ता में रहते हुए उन्होंने क्या कार्य किया? पिछले चुनाव में जो वादे किये थे उनका क्या हुआ ? कितने वादे पूरे हुए किस हद तक पूरे हुए और कितने अधूरे रह गए और क्यूँ ? जो विपक्ष में थे उनसे यह अपेक्षा है कि वे जिन कमियों के कारण पहले नकार दिए गए थे, उन कमियों को किस तरह दूर कर सकेंगे. अगर वे जनता से यह अपेक्षा करते है कि सत्ता सम्हालने का मौका उन्हें दिया जाये क्युकि वर्तमान सरकार असफल है और वे उनसे बेहतर शासन और प्रशासन कर सकते हैं तो उन्हें भी ये साफ़ साफ़ बताना चाहिए कि पिछली असफलताओ से उन्होंने क्या सबक लिया और अब उनके पास अगले 5 वर्षो के लिए विकास के क्या रोडमैप हैं.
सभी दलों को जनता को सिर्फ यह बताना चाहिए कि वे अगर सत्ता में आते हैं तो क्या क्या न्यूनतम कार्य करेंगे. उन कामो को करने के लिए संसाधन और रणनीति के सम्बन्ध में भी जानकारी देनी चाहिए. साथ ही उन्हें यह भी बताना चाहिए कि इन कार्यो के अपेक्षित परिणाम या निर्धारित लक्ष्य क्या हैं और कितने समय में ( केवल आगामी 5 वर्ष के दौरान ) प्राप्त कर लिए जायेंगे.
आज चुनावी वादों और दावो की कोई एकाउंटेबिलिटी नहीं है. ठगी हुए जनता लुटी हुई महसूस करती है जब चुनाव के बाद नेता बड़ी सहजता ये यह कह देते हैं कि जुमलेबाजी तो चुनावी प्रचार प्रसार में चलती रहती है. शब्दों को मत पकडिये,भावनाओ को समझिये . चुनाव आयोग को संहिता में यह निर्धारित करना चाहिए की जो नारे या जो जुमले प्रचार के दौरान इस्तेमाल किये जा रहे है जो वादे जनता से किये जा रहे हैं उन वादों को पूरा करने के सम्बन्ध में भी पार्टिया अपना नज़रिया स्पष्ट करें यह भी निर्धारित है कि चुनाव सिर्फ और सिर्फ 5 वर्ष के लिए हो रहे हैं. चुनाव के बाद दल यह कहकर मुकर जाते हैं इस कार्य को 5 वर्षो में पूर्ण करना संभव नहीं है इसलिए अगले 5 साल और हमें मौका दीजिये ताकि हम इसके लिए प्रयास कर सकें. गैर वाजिब तर्कों से जनता को बहलान तो जैसे परिपाटी बन गई है. ऐसा वादा किया ही क्यों जाये जिसे पूरा करना संभव न हो .
हर राजनैतिक पार्टी एक दुसरे पर गंभीरतम आरोप चुनाव के दौरान लगाती है. परस्पर कीचड़ उछालने के प्रतिस्पर्धा इसकदर चलती रहती है कि ऐसा प्रतीत होता है कि सब एक दूसरे की कमजोरियों को जानते हैं और बहुत पहले से जानते हैं लेकिन केवल चुनाव के दौरान इस्तेमाल करने के लिए ही उसे सहेज कर रखा गया है. चुनाव आते ही तरह तरह के दतावेज ऑडियो विडियो अचानक प्रगट होने लगते हैं. चरित्र हनन से लेकर भ्रष्टाचार तक गंभीर आरोप सभी पर लगाये जाते हैं. लेकिन सत्ता में आते ही किसी के खिलाफ कोई प्रकरण दर्ज नहीं होता. न ऐसे साक्ष्यो की प्रमाणिकता सिद्ध की जाती है. यदि किसी दल पर या व्यक्तियों पर कोई आरोप लगाये जाते हैं तो उनके साक्ष्य भी जनता व कानून के सामने रखे जाने चाहिए. यदि ये साक्ष्य सत्य पाए जाते है तो आरोपी पर कर्यवाही भी की जानी चाहिए. सिर्फ अपनी कमीज़ कम मैलीसाबित करने के लिए या चुनाव को मुद्दों से भटकाने के लिए ऐसे आरोप न लगाए जाएँ .
धर्म जाति और अन्य संवेदनशील विषयों के बारे में अपने दल की नीति स्पष्ट करना चाहिए. लोगो की भावनाओ को भड़काकर वोट प्राप्त करने के प्रयास अब बंद होने चाहिए. इलेक्ट्रॉनिक चैनलों में भी प्रतिदिन होने वाली इन बेसिर पैर की बहस पर विराम लगाया जाना चाहिए. प्रत्येक राजनैतिक दल अपने विचारधारा, अपना दृष्टिकोण , विकास की अपनी योजना और उस योजना को लागू करने की रणनीति पर ही अपने प्रचार-प्रसार को केन्द्रित करे.
इस देश में काला धन चुनावो में सबसे ज्यादा उपयोग होता है यह सबको पता हैइसे रोका जाना चाहिए इसको रोकने का एक ही तरीका है की चुनाव प्रचार की नीति और दिशानिर्देशो को और सख्त किया जाये. चुनाव प्रचार को विकास के मुद्दों पर केन्द्रित किया जाये व्यक्तिगत और दलगत दुष्प्रचार पर नहीं. चुनाव के दौरान पार्टियो द्वारा किये जाने वाले व्यय की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाये जाने की आवश्यकता है. यूँ तो हर बात के लिए दिशा निर्देश हैं लेकिन इन निर्देशों का कड़ाई से पालन भी कराया जाये ताकी लोकतंत्र की गरिमा बनी रहे. काश वो दिन भी आये जब चुनाव प्रचार विकास पर आधारित हो, जिस स्तर का हो उस स्तर के मुद्दों पर आधारित हो,विकास की रूपरेखा और 5 साल के आउटकम जिसमे साल दर साल होने वाली प्रगति का ब्यौरा भी हो, के साथ पार्टियाँ मैदान में उतरें न कि केवल अपनी आत्मप्रशंसा और विपक्षी दल की निंदा करने के लिए.
इसके लिए जनता को भी तैयार होना होगा, मनोरंजन और चुनाव प्रचार के अंतर को समझना होगा. अपने हितो के लिए सवाल पूछने होंगे. केवल मूक दर्शक या श्रोता नहीं बल्कि वक्ता भी बनना होगा. यह पूछना भी होगा कि क्या हुआ तेरा वादा , वो कसम वो इरादा. केवल भीड़ बनकर दलों के शक्ति प्रदर्शन के लिए नहीं है जनता. ये जनता ही लोकतंत्र का आधार है. इसलिए चुनाव और चुनाव प्रचार का केंद्र भी जनता ही होना चाहिए.
मीडिया को भी तमाशा और डुगडुगी के खेल से बाहर आकर पार्टियों की आवाज़ के बदले जनता की आवाज़ बनना होगा तभी वह लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने का हकदार बन सकेगा ..
मुझे ऐसा लगता है की जल्द ही चुनाव आयोग को इस दिशा में निश्चित रूप से कुछ क्रांतिकारी और ठोस कदम उठाने होंगे वरना यही सब चलता रहेगा, आम आदमी बेचारा बार-बार छला जाता रहेगा.

 

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